Sunday, July 5, 2009

पुष्प की अभिलाषा by माखनलाल चतुर्वेदी

चाह नहीं, मैं सुरबेला के
गहनों में गुँथा जाऊँ।
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ।

चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर, हे हरि, डाला जाऊँ।
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढूँ, भाग्य पर इठलाऊँ।

मुझे तोड़ लेना, वनमाली,
उस पथ में देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,
जिस पथ जाएँ वीर अनेक।

तितली

दूर देश से आई तितली,
चंचल पंख हिलाती।
फूल-फूल पर, कली-कली पर,
इतराती, इठलाती।

कितने सुंदर हैं पर इसके,
जगमग रंग-रँगीले।
लाल, हरे, बैंजनी, वसन्ती,
काले, नीले, पीले।

बच्चों ने जब देखी इसकी,
खुशियाँ, खेल निराले।
छोड़छाड़ कर खेल-खिलौने,
दौड़ पड़े मतवाले।

अब पकड़ी तब पकड़ी तितली,
कभी पास है आती।
और कभी पर तेज़ हिलाकर,
दूर बहुत उड़ जाती।

बच्चों के भी पर होते तो,
साथ-साथ उड़ जाते।
और हवा में उड़ते-उड़ते,
दूर देश हो आते।

पथ की पहचान by हरिवंश राय 'बच्चन' (excerpted from 'सतरंगिनी)

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले!
पुस्तकों में है नहीं, छपी हुई इसकी कहानी,
हाल इसका ज्ञात होता, है न औरों की ज़बानी,
अनगिनत राही गए इस राह से, उनका पता क्या,
पर गए कुछ लोग इस पर, छोड़ पैरों की निशानी,
यह निशानी, मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है,
खोल इसका अर्थ, पंथी, पंथ का अनुमान कर ले!
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले!

है अनिश्चित किस जगह पर, सरित, गिरि, गह्वर मिलेंगे,
है अनिश्चित किस जगह पर, बाग़ बन सुंदर मिलेंगे,
किस जगह यात्रा ख़तम हो जायगी, यह भी अनिश्चित,
है अनिश्चित, कब सुमन, कब कंटकों के सर मिलेंगे
कौन सहसा छूट जाएँगे, मिलेंगे कौन सहसा,
आ पड़े कुछ भी, रुकेगा तू न, ऐसी आन कर ले :
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले!

कौन कहता है कि स्वप्नों को न आने दे हृदय में,
देखते सब हैं इन्हें, अपनी उमर, अपने समय में,
और तू कर यत्न भी तो, मिल नहीं सकती सफलता,
ये उदय होते लिए कुछ ध्येय नयनों के निलय में,
किन्तु जग के पंथ पर यदि, स्वप्न दो तो सत्य दो सौ,
स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो, सत्य का भी ज्ञान कर ले :
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले!

स्वप्न आता स्वर्ग का, दृग-कोरकों में दीप्ति आती,
पंख लग जाते पगों को, ललकती उन्मुक्त छाती,
रास्ते का एक काँटा, पाँव का दिल चीर देता,
रक्त की दो बूँद गिरतीं, एक दुनिया डूब जाती,
आँख में हो स्वर्ग लेकिन, पाँव पृथ्वी पर टिके हों,
कंटकों की इस अनोखी सीख का सम्मान कर ले,
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले!

यह बुरा है या कि अच्छा व्यर्थ दिन इस पर बिताना,
जब असंभव छोड़ यह पथ दूसरे पर पग बढ़ाना,
तू इसे अच्छा समझ, यात्रा सरल इससे बनेगी,
सोच मत केवल तुझे ही यह बड़ा मन में बिठाना,
हर सफल पंथी यही विश्वास ले इस पर पड़ा है,
तू इसी पर आज अपने चित्त का अवधान कर ले।
पूर्व चलने के, बटोही, बाट की पहचान कर ले।

दीप जलाओ, दीप जलाओ

दीप जलाओ, दीप जलाओ,
आज दिवाली रे।
खुशी-खुसी सब हँसते आओ,
आज दिवाली रे।

मैं तो लूँगा खील-खिलौने,
तुम भी लेना भाई।
नाचो, गाओ, खुशी मनाओ,
आज दिवाली आई।

आज पटाखे खूब चलाओ
आज दिवाली रे।
दीप जलाओ, दीप जलाओ,
आज दिवाली रे।

नए-नए मैं कपड़े पहनूँ,
खाऊँ खूब मिठाई।
हाथ जोड़कर पूजा कर लूँ
आज दिवाली आई।

खाओ मित्रो, खूब मिठाई,
आज दिवाली रे।
दीप जलाओ, दीप जलाओ,
आज दिवाली रे।

आज दुकानें खूब सजी हैं,
घर भी जगमग करते।
झलमल-झलमल दीप जले हैं
कितने अच्छे लगते।

आओ, नाचो, खुशी मनाओ,
आज दिवाली रे।
दीप जलाओ, दीप जलाओ,
आज दिवाली रे।

ऋतुएँ

सूरज तपता धरती जलती।
गरम हवा ज़ोरों से चलती।
तन से बहुत पसीना बहता,
हाथ सभी के पंखा रहता।

आ रे बादल! काल्रे बादल!
गरमी दूर भगा रे बादल!
रिमझिम बूँदें बरसा बादल!
झम-झम पानी बरसा बादल!

लो घनघोर घटाएँ छाईं,
टप-टप-टप-टप बूँदें आईं।
बिजली चमक रही अब चम-चम,
लगा बरसने पानी झम-झम!

लेकर अपने साथ दिवाली,
सरदी आई बड़ी निराली।
शाम सवेरे सरदी लगती,
पर स्वेटर से है वह भगती।

सरदी जाती, गरमी आती,
रंग रंग के फूल खिलाती।
रंग-रँगीली होली आती,
सबके मन उमंग भर जाती।

रात और दिन हुए बराबर,
सोते लोग निकलकर बाहर।
सरदी बिलकुल नहीं सताती,
सरदी जाती गरमी आती।

सीखो by श्रीनाथ सिंह

फूलों से नित हँसना सीखो,
भौंरों से नित गाना।
तरु की झुकी डालियों से नित
सीखो शीश झुकाना।

सीख हवा के झोंकों से लो
कोमल भाव बहाना।
दूध तथा पानी से सीखो
मिलना और मिलाना।

सूरज की किरणों से सीखो
जगना और जगाना।
लता और पेड़ों से सीखो
सबको गले लगाना।

मछली से सीखो स्वदेश के
लिए तड़पकर मरना।
पतझड़ के पेड़ों से सीखो
दुख में धीरज धरना।

दीपक से सीखो जितना
हो सके अँधेरा हरना।
पृथ्वी से सीखो प्राणी की
सच्ची सेवा करना।

जलधारा से सीखो आगे
जीवन-पथ में बढ़ना।
और धुँए से सीखो हरदम
ऊँचे ही पर चड़ना।

सुबह by श्रीप्रसाद

सूरज की किरणें आती हैं,
सारी कलियाँ खिल जाती हैं,
अंधकार सब खो जाता है,
सब जग सुंदर हो जाता है।

चिड़ियाँ गाती हैं मिलजुल कर,
बहते हैं उनके मीठे स्वर,
ठंडी-ठंडी हवा सुहानी,
चलती है जैसे मस्तानी।

य प्रातः की सुख-बेला है,
धरती का सुख अलबेला है,
नई ताज़गी, नई कहानी,
नया जोश पाते हैं प्राणी।

खो देते हैं आलस सारा,
और काम लगता है प्यारा,
सुबह भली लगती है उनको,
मेहनत प्यारी लगती जिनको।

मेहनत सबसे अच्छा गुण है,
आलस बहुत बड़ा दुर्गुण है,
अगर सुबह भी अलसा जाए,
तो क्या जग सुंदर हो पाए?